10.11.08

उपभोक्तावादी प्यार

हिंदी क्वेस्ट के मंच पर एक शाश्वत चिरंतन और आधुनिक प्रश्न मिला कि प्यार कैसे होता है ! मेरी मान्यता है कि आधुनिक संदर्भों में प्यार, स्वार्थ से ओतप्रोत एक अनुभूति है ! जो चीज़ अच्छी लगे उसे अपना बनाने की चाह का अहसास ही प्यार है ! विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण बोध के चलते तथाकथित प्यार 'फील' होता है ! इसके लिये जितने भी धत करम किए जाते हैं वे सब 'अफेयर' कहे जाते हैं !

कुछ शब्द ठहरे हुए लगते हैं लेकिन अपने मूल भाव से काफी दूर आ चुके हैं ! जैसे धर्म, हिंदू, प्यार आदि ! आत्मीयता गल चुकी है इसीलिये प्यार की धारणा बदल चुकी है ! परिवार के सदस्यों और मित्रों के बीच वह प्यार अब कहां जो शरत-साहित्य और अन्य उत्कृष्ट उपन्यासों में पढ चुके ! और तो और, हमने प्यार की उपभोक्तावादी नयी परिभाषा गढ ली और ऐसी सारी किताबें जो पुरानी शैली का बखान करती थी अपनी लाईब्रेरी से ही हटवा दीं !

क्या यह उन्नयन का प्रतीक है ?


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2 comments:

Suyash Pratap Singh said...

The commercialisation has now crept in to the relations at very greater extent, now we need old age home for our parents, a greet without greeting is incomplete, a visit to temple is not a very happing thing one does....
Your observations are alarming !!!!

RDS said...

सुयश जी ! ब्लॉग पर सुन्दर, सटीक और नपे तुले शब्दों में आपका कमेन्ट
मुझे न सिर्फ प्रोत्साहन देता है वरन एक ऊर्जा भी | धन्यवाद !!