16.9.08

अनुपम माँ !!



माँ मैं तुमको क्या उपमा दूं ।
जग की सब उपमाएं छोटी
स्वर्ग की बातें होती झूठी
जग का निर्माता विश्व - विधाता
ईश्वर भी तुमसे कम है,
फिर मैं तुमको क्या उपमा दूं ॥

मुझे गढने वाली उस माँ को नमन जो स्मृति रुप में सदैव जागृत है, उपस्थित है ; वैसे ही, जैसे मेरे शैशव और बाल्य काल मे थीं , मुझे दिशा और संस्कार देती हुई सी !

माँ के जैसा न तो मुझे आज़ तक कोई ग्रंथ मिला ना ही गुरु । वह विलक्षण थी । प्रभु से एक यही याचना है कि जगत की माया कभी मुझे ऐसा खुदगर्ज़ ना बना दे कि माँ विस्मृत हो जाये !!

माँ की याद से बडी और मूल्यवान कोई सम्पत्ति ही नही !! उस रत्न का मोल मेरे अतिरिक्त और कौन जानेगा !!

नमन ..