28.12.08

मेरे सपनों का भारत

(Latent Dissent के लिए उनके आमंत्रण पर आभार सहित )

हमारे देश के अनेक सूत्र वाक्यों में से एक है - 'चरैवैती-चरैवैती' अर्थात बढ़ते चलो ... बढ़ते चलो ..

पिछले कुछ सालों में रुकावटें कमोबेश उतनी ही थी जितनी आज है लेकिन हम बढ़ते रहे | रुकावटों का रूप बदलता जा रहा है और बदले रूप से बदला लेने का कोई इंतज़ाम नहीं ; ये ही फिक्र आज सभी को है | फिर भी भरोसा है कि भविष्य हमारा है |


सपने ए पी जे अब्दुल कलाम साहब ने भी देखे और जिद थी तो साकार भी किये | उनका आभार कि उनसा स्वप्नदर्शी न होता तो हम घिसट रहे होते | सपने देखना कायदे में तो उन्होंने ही सिखाया | वरना नेहरू के स्वप्न नौकरशाहों ने कालांतर में छिन्न भिन्न कर दिए | देश की औद्योगिक सम्पन्नता निस्संदेह कुछ और होती अगर हमारी बागड़ ही खेत न उजाड़ रही होती |

आज पहली ज़रुरत सत्ताधीशों के शोधन की है | इस शुद्धिकरण के हुए बगैर हमारे स्वप्न दुःस्वप्न से बेहतर नहीं हो सकते | दलगत दलदल में बटे लोग देश के बटवारे से परे कुछ सोचते हुए नहीं दीखते | उनके चश्में निजी भविष्य पर फोकस किये हुए हैं | स्वार्थ-सिद्धि से फारिग हों तो देश दीखे ! और स्वार्थ-सिद्धि से भला कोई फारिग हो सका है आज तक ?

दूसरी जरूरत देश से भाग्यवादियों और कर्मकाण्डियों को प्रतिबंधित कर देने की है | रत्न / कुण्डली / राशि / रेखाशास्त्री / अंकशास्त्री सभी वे केंकड़े हैं जो हमारी कर्मशील संभावना की टांग खींच कर पंगु बना रहे हैं | देश आध्यात्म की ऊंचाइयां फिर से छू ले लेकिन पहले आडम्बर तो छूटे | भांति भांति के विविध नाम और रूप वाले चैनल आडम्बर परोस कर आनंदित हैं क्योंकि उन्हें देशवासियों की मूर्खता पर भरोसा है और इसी से उनकी रोटी - रोजी चलती है |

देश के बारे में सभी के सपने कमोबेश यकसां होंगे | यही कि देश की विद्वता विश्व में पूजी जाए, समादृत हो | हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियां विश्व में सराही जाएँ | ( बहुत भरोसा है हमे अपनी प्रतिभा पर ! क्षमता है , भरोसा है तो सफलता भी निश्चित है ! ) स्वप्न है कि यह देश आर्थिक क्रान्ति का अग्रदूत बने ; जहां व्यवस्थित तंत्र हो, भ्रष्टतंत्र को कोई स्थान न हो | हर कोई अपने वतन के प्रति निष्ठा संपन्न हो | वहीं दूसरी ओर, धर्म हमारा मार्ग प्रशस्त करे न कि हमें परास्त कर दे | धर्म के प्रति किसी को कोई न तो आग्रह हो और न ही दुराव ही |

अंत में, देश के प्रति हमारा स्वाभिमान हमारी सर्वोत्कृष्ट संपत्ति बन जाए इससे बड़ा स्वप्न और क्या ?

कुटिलता का आतंक

सोचा भी न था कि मालवा और मीठी यादों की जुगत में सजाया चिट्ठा आतंक और निहायत नापंसंद से विषय 'राजनीति' की दिशा ग्रहण कर लेगा |

लेकिन ऊपर की लुभावनी लीपा पोती से सजा आधुनिक संसार अंदरूनी तौर पर कितना खोखला हो चला है सोच सोच कर ही विकलता बढ़ने लगती है इसीलिये मिठास और रस से भरे शब्द, अनचाहे अनचीते ही विकलता दर्शाने लगे और आतंक / मीडिया / नेता वगैरह गिरफ्त में आ गए | भरोसा है जल्दी निजात मिल जायेगी |

एक चिंताग्रस्त मित्र नें चिंतित लोगों की चौपाल जमाने की जुगत की और इन पंक्तियों के लेखक को भी चिंतनशील समझ कर एक चिन्तालेख भेजने का न्योता भेज दिया |

ये आम भारतीय के विचार माने जा सकतें हैं | इस लिहाज़ से कहा जाए तो आम भारतीय, तथाकथित नेताओं से कुंठित है लेकिन कुछ कर नहीं पाता ; मीडिया से व्यथित है, परन्तु कुछ कर नहीं पाता ; धर्म के बदले अर्थ से क्षुब्ध है, लेकिन कुछ कह नहीं पाता | दरअसल हर दिशा में उनका बोलबाला है जिनकी बोलती बंद होनी चाहिए थी | उनका नाम गिनाएंगे तो गिनाते रह जायेंगे |

ऐसा नही कि नागरिक निष्क्रिय रहे हों, लेकिन अपनी सीमित शक्तिसंपन्नता की कारण वे नक्कारखाने की तूती भर ही तो हैं | इतने ब्लॉग, इतनी आवाज़ - पहले कभी नहीं थी | अखबारों के समाचार और विचार पर तुरत फुरत कमेन्ट, इतने पहले कभी नहीं थे | बहुत कुछ सकारात्मक भी लिखा गया लेकिन जूँ टस से मस नहीं हुई | चिंता करने वाले भले ही शहर काजी की तरह बीमार हो गए हों |

हालात बिगड़ने के पीछे के कारण बहुत हैं | मीमांसा करेंगे तो हम सबका खोखलापन और नंगापन सामने आ जायेगा | इन्हें सुधार लें तो आज से बेहतर संसार निकट अतीत में तो नहीं रहा मिलेगा |

पहला कारण है उपभोक्तावाद | अपने भौतिक सुख के चाह में स्वार्थ और स्वार्थ के आड़ में वैमनस्यता , पनपती ही है | आध्यात्म घटता है तो त्याग लुप्त होता है और दीवारें बनती हैं व बढ़ती रहती हैं | नेताओं के ह्रदय की मलीनता इसी उपभोक्तावाद की देन है | बचपन में हम नेताओं के पाठ श्रद्धा से पढ़ते थे आज अपने बच्चों को नेताओं के नाम से दूर ही रखते हैं | निष्ठा खो गयी है क्योंकि नेता कलंकित होते जा रहे हैं | देश पर हालिया आतंकी हमलों की श्रृंखला के दौरान नेताओं ने जिस तरह का बर्ताव किया वह आतंकवादियों की तुलना में ज्यादा ही हानिकारक रहा |

आलम यह कि जो धर्म का मर्म नहीं समझते वे धर्म का खेल खेलते हैं | इधर हिन्दू कर्मकान्डियो की बाढ़ है और उनका प्रदर्शन ही धर्म कहला रहा है |इसी तरह इस्लामी श्रेष्ठता लुप्त सी है | जन्नत और ख़ज़ाने के नाम पर बरगलाए गए नौज़वान दूसरी कौम को समझे वगैर नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं | और तुर्रा यह कि नेता आग बढाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते | चाहे वह अमर सिंह हों अर्जुन सिंह हो अंतुले हों या तोगडिया ही |

विश्वास करें या न करें, इस दुर्दशा का दूसरा प्रमुख कारण हमारा अधार्मिक हो जाना ही है | अधार्मिक अर्थात अनैतिक और आध्यात्मिकता-हीन | निर्दयता और चतुरता का बोलबाला है | प्रेम दया करूणा सह्रदयता कब स्त्रियोचित समझे जाने लगे और कब हमारी संस्कृति से लुप्त हो गए पता ही नहीं चला | जो जितना विलासी वह उतना ही सफल | पैमाने बदल गए | केबल के माध्यम से संस्कृति लीक हो जायेगी अंदेशा तो था पर लीकेज की इतनी तीव्रता का अंदाजा नहीं था | अब 'पूस की रात ' की तरह फसल की तबाही पर बेफिक्री का अहसास जल्द ही आने वाला है | जब संस्कृति ही नहीं रही तो बचाने की मशक्कत क्यों की जाए ? इधर सरकार की नींद बताती है कि नशा कितना गहरा था |

पिछले दिनों लगातार तार तार कर देने वाली खबरें आती रही ; अभी भी आ रही है | युद्ध होगा , नहीं होगा | हिन्दू आतंकवाद , मुस्लिम आतंकवाद | बुरे मुस्लिम , अच्छे मुस्लिम | कोंडालिसा राईस , गिलानी ज़रदारी | कसाब, कसाब का वकील | अंतुले, सोनिया |

इन सबसे अलग उनकी सुध तो लें जो गरीब मुम्बई के शिवाजी टर्मिनस पर दुनिया लुटा बैठे | वे क्या कहते है ? मुंबई की एक झुग्गी में रहने वाली सावित्री गुप्ता बिहार के एक छोटे से गांव से मुंबई आकर अपने पति के साथ रह रही थी अब अकेली हैं, कहती हैं, ‘‘युद्ध से कोई समाधान नहीं निकल सकता | मेरा जो जाने वाला था वो तो चला गया ; किस्मत में यही लिखा था शायद | पाकिस्तान से लड़ के क्या होगा ? असली समस्या बेरोज़गारी है | जिसने मेरे पति को मारा अगर उसके पास अच्छा रोज़गार होता तो शायद वो आतंकवादी नहीं बनता | डेढ़ लाख रूपए के लिए डेढ़ सौ लोगों को नहीं मारता | पाकिस्तान को चाहिए कि अपने युवाओं को रोज़गार दे ताकि आतंकवाद रुके |' ये वो सच्चाई है जिसे सावित्री जैसी कम पढ़ी लिखी महिला तक बखूबी समझती है | ऐसे में युद्ध और उसकी धौंस दोनों देशॉं का , दोनों कौमों का, दोनों तहज़ीबों का कितना नुकसान कर रही है सोचा है ? भरपाई शायद इतनी आसान ना हों |

हमारे देश में भी नेता अपने ओछेपन से बाज आये तो कुछ कल्याण हो |


भोपाल रविवार २८ दिसम्बर २००८