28.12.08

कुटिलता का आतंक

सोचा भी न था कि मालवा और मीठी यादों की जुगत में सजाया चिट्ठा आतंक और निहायत नापंसंद से विषय 'राजनीति' की दिशा ग्रहण कर लेगा |

लेकिन ऊपर की लुभावनी लीपा पोती से सजा आधुनिक संसार अंदरूनी तौर पर कितना खोखला हो चला है सोच सोच कर ही विकलता बढ़ने लगती है इसीलिये मिठास और रस से भरे शब्द, अनचाहे अनचीते ही विकलता दर्शाने लगे और आतंक / मीडिया / नेता वगैरह गिरफ्त में आ गए | भरोसा है जल्दी निजात मिल जायेगी |

एक चिंताग्रस्त मित्र नें चिंतित लोगों की चौपाल जमाने की जुगत की और इन पंक्तियों के लेखक को भी चिंतनशील समझ कर एक चिन्तालेख भेजने का न्योता भेज दिया |

ये आम भारतीय के विचार माने जा सकतें हैं | इस लिहाज़ से कहा जाए तो आम भारतीय, तथाकथित नेताओं से कुंठित है लेकिन कुछ कर नहीं पाता ; मीडिया से व्यथित है, परन्तु कुछ कर नहीं पाता ; धर्म के बदले अर्थ से क्षुब्ध है, लेकिन कुछ कह नहीं पाता | दरअसल हर दिशा में उनका बोलबाला है जिनकी बोलती बंद होनी चाहिए थी | उनका नाम गिनाएंगे तो गिनाते रह जायेंगे |

ऐसा नही कि नागरिक निष्क्रिय रहे हों, लेकिन अपनी सीमित शक्तिसंपन्नता की कारण वे नक्कारखाने की तूती भर ही तो हैं | इतने ब्लॉग, इतनी आवाज़ - पहले कभी नहीं थी | अखबारों के समाचार और विचार पर तुरत फुरत कमेन्ट, इतने पहले कभी नहीं थे | बहुत कुछ सकारात्मक भी लिखा गया लेकिन जूँ टस से मस नहीं हुई | चिंता करने वाले भले ही शहर काजी की तरह बीमार हो गए हों |

हालात बिगड़ने के पीछे के कारण बहुत हैं | मीमांसा करेंगे तो हम सबका खोखलापन और नंगापन सामने आ जायेगा | इन्हें सुधार लें तो आज से बेहतर संसार निकट अतीत में तो नहीं रहा मिलेगा |

पहला कारण है उपभोक्तावाद | अपने भौतिक सुख के चाह में स्वार्थ और स्वार्थ के आड़ में वैमनस्यता , पनपती ही है | आध्यात्म घटता है तो त्याग लुप्त होता है और दीवारें बनती हैं व बढ़ती रहती हैं | नेताओं के ह्रदय की मलीनता इसी उपभोक्तावाद की देन है | बचपन में हम नेताओं के पाठ श्रद्धा से पढ़ते थे आज अपने बच्चों को नेताओं के नाम से दूर ही रखते हैं | निष्ठा खो गयी है क्योंकि नेता कलंकित होते जा रहे हैं | देश पर हालिया आतंकी हमलों की श्रृंखला के दौरान नेताओं ने जिस तरह का बर्ताव किया वह आतंकवादियों की तुलना में ज्यादा ही हानिकारक रहा |

आलम यह कि जो धर्म का मर्म नहीं समझते वे धर्म का खेल खेलते हैं | इधर हिन्दू कर्मकान्डियो की बाढ़ है और उनका प्रदर्शन ही धर्म कहला रहा है |इसी तरह इस्लामी श्रेष्ठता लुप्त सी है | जन्नत और ख़ज़ाने के नाम पर बरगलाए गए नौज़वान दूसरी कौम को समझे वगैर नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं | और तुर्रा यह कि नेता आग बढाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते | चाहे वह अमर सिंह हों अर्जुन सिंह हो अंतुले हों या तोगडिया ही |

विश्वास करें या न करें, इस दुर्दशा का दूसरा प्रमुख कारण हमारा अधार्मिक हो जाना ही है | अधार्मिक अर्थात अनैतिक और आध्यात्मिकता-हीन | निर्दयता और चतुरता का बोलबाला है | प्रेम दया करूणा सह्रदयता कब स्त्रियोचित समझे जाने लगे और कब हमारी संस्कृति से लुप्त हो गए पता ही नहीं चला | जो जितना विलासी वह उतना ही सफल | पैमाने बदल गए | केबल के माध्यम से संस्कृति लीक हो जायेगी अंदेशा तो था पर लीकेज की इतनी तीव्रता का अंदाजा नहीं था | अब 'पूस की रात ' की तरह फसल की तबाही पर बेफिक्री का अहसास जल्द ही आने वाला है | जब संस्कृति ही नहीं रही तो बचाने की मशक्कत क्यों की जाए ? इधर सरकार की नींद बताती है कि नशा कितना गहरा था |

पिछले दिनों लगातार तार तार कर देने वाली खबरें आती रही ; अभी भी आ रही है | युद्ध होगा , नहीं होगा | हिन्दू आतंकवाद , मुस्लिम आतंकवाद | बुरे मुस्लिम , अच्छे मुस्लिम | कोंडालिसा राईस , गिलानी ज़रदारी | कसाब, कसाब का वकील | अंतुले, सोनिया |

इन सबसे अलग उनकी सुध तो लें जो गरीब मुम्बई के शिवाजी टर्मिनस पर दुनिया लुटा बैठे | वे क्या कहते है ? मुंबई की एक झुग्गी में रहने वाली सावित्री गुप्ता बिहार के एक छोटे से गांव से मुंबई आकर अपने पति के साथ रह रही थी अब अकेली हैं, कहती हैं, ‘‘युद्ध से कोई समाधान नहीं निकल सकता | मेरा जो जाने वाला था वो तो चला गया ; किस्मत में यही लिखा था शायद | पाकिस्तान से लड़ के क्या होगा ? असली समस्या बेरोज़गारी है | जिसने मेरे पति को मारा अगर उसके पास अच्छा रोज़गार होता तो शायद वो आतंकवादी नहीं बनता | डेढ़ लाख रूपए के लिए डेढ़ सौ लोगों को नहीं मारता | पाकिस्तान को चाहिए कि अपने युवाओं को रोज़गार दे ताकि आतंकवाद रुके |' ये वो सच्चाई है जिसे सावित्री जैसी कम पढ़ी लिखी महिला तक बखूबी समझती है | ऐसे में युद्ध और उसकी धौंस दोनों देशॉं का , दोनों कौमों का, दोनों तहज़ीबों का कितना नुकसान कर रही है सोचा है ? भरपाई शायद इतनी आसान ना हों |

हमारे देश में भी नेता अपने ओछेपन से बाज आये तो कुछ कल्याण हो |


भोपाल रविवार २८ दिसम्बर २००८

2 comments:

sarita argarey said...

बहुत बढिया आलेख । आपने सभी बातें खुलकर और श्पष्ट तौर पर कह दीं । भारतीय संस्क्रति ही नहीं रही ,तो उसे बचाने की जद्दोजहद कैसी ? मगर आतंकवाद को सिर्फ़ गरीबी और बेरोज़गारी से जोडकर देखना भी ठीक नहीं होगा । दहशतगर्दी के इस खेल में पढे लिखे और अमीर नौजवानों की भी कमी नहीं । समस्या की जड को तलाशने के लिए अभी और मशक्कल की ज़रुरत है ।

RDS said...

सरिता जी ,

राय और सराहना के शब्दों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ! आपने ठीक लिखा, निर्विवाद रूप से दहशतगर्दी के खेल में पढे लिखे और अमीर नौजवान भी हैं | यह पंथानुकरण की पराकाष्ठा है | फेसबुक और याहू मेसेंजर के इस्लामी कक्ष में कई बार कुतर्कों से रूबरू होना पडा | इस्लाम का सूफी पक्ष नदारद सा है | यह कैसा विकास और कैसा भूमंडलीकरण ? यह विश्व की चिंता का एक विशद विषय है | लेकिन हमारी अंदरूनी दशा और व्यवस्था इस आक्रमण से निरापद नहीं है यह अधिक चिंता का विषय है | नेता नाकारा न होते तो दहशतगर्दी आकार न लेती | एक उम्मीद है कि जो जाग रहे है वे शायद कल हमारे स्वाभिमान को सहारा दें |